जीवनी
कैनिज़रो : इतिहास की
बुनियाद पर रसायन की प्रगति
उन्नीसवीं सदी का
पूर्वार्ध्द रसायन शास्त्र की दृष्टि से काफी उथल-पुथल का दौर रहा। दरअसल,
रासायनिक संयोग के नियम प्रतिपादित होने के बाद डाल्टन ने परमाणु सिध्दांत
प्रस्तुत किया (1808) जिसकी बदौलत इन नियमों को एक सैध्दांतिक आधार मिला और
रासायनिक क्रियाओं को नई रोशनी में देखना संभव हुआ। मगर ऐसा नहीं है कि
अचानक सब लोगों ने डाल्टन का सिध्दांत स्वीकार कर लिया हो। ओस्वाल्ड और मैक
जैसे महत्वपूर्ण रसायनविदों ने इसे स्वीकार नहीं किया था। वास्तव में देखा
जाए, तो परमाण सिध्दांत और परमाणु के अस्तित्व को पूरी तरह स्वीकार तो बीसवीं
सदी में तब किया गया जब पेरिन ने वास्तव में परमाणु गिनकर दिखा दिए। मगर
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बर्ज़ीलियस, एवोगैड्रो, एम्पीयर जैसे जो
वैज्ञानिक परमाणु सिध्दांत को स्वीकार कर चुके थे उनके बीच भी इसे लेकर
तमाम मतभेद थे।
उदाहरण के लिए (चौंकिएगा
नहीं), उस समय यह स्पष्ट नहीं था कि परमाणु किसे कहा जाए और अणु किसे कहें,
या इन दोनों के बीच भेद क्या है। यह भी स्पष्ट नहीं था कि परमाणु/अणु भार
कैसे निकाले जाएं। हालत यह हो गई थी कि एक-एक तत्व के कई परमाणु भार सामने
थे। यह भी साफ नहीं था कि यौगिकों के सूत्र क्या हों। अफरा-तफरी की हद का
अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय के एक प्रसिध्द रसायन शास्त्री
ऑगस्ट केकुले (बेंज़ीन की रचना वाले) ने उपलब्ध जानकारी के आधार एसिटिक अम्ल
के 19 सूत्र निकाले थे।
इस पृष्ठभूमि में
स्टानिसलौ कैनिज़रो का योगदान छोटा ही सही मगर निर्णायक साबित हुआ। वैसे
कैनिज़रो को रसायन शास्त्र के विद्यार्थी एक रासायनिक क्रिया के लिए जानते
हैं जिसे उनके नाम पर कैनिज़रो अभिक्रिया कहा जाता है। कैनिज़रो का जन्म 1826
में इटली में एक समृध्द व प्रभावशाली परिवार में हुआ था। शुरुआत में
चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने के बाद वे रसायन शास्त्र की ओर मुड़ गए। उस
समय तक फ्रेडरिक वोह्लर व अन्य रसायनज्ञों के शोध कार्य की बदौलत यह साबित
हो चुका था कि जैविक यानी ऑर्गेनिक पदार्थ कोई अनोखे पदार्थ नहीं हैं और
इन्हें प्रयोगशाला में अजैविक यानी इन-ऑर्गेनिक पदार्थों से बनाया जा सकता
है। कैनिज़रों ने रसायन शास्त्र की इसी शाखा यानी कार्बनिक रसायन में अपना
अधिकांश शोध कार्य किया।
उस समय की
सामाजिक-राजनैतिक परिस्थिति में यह शायद स्वाभाविक ही था कि वे राजनैतिक
रूप से भी काफी सक्रिय रहे। समय-समय पर होने वाले विद्रोहों में वे मदद देते
रहे। इतना ही नहीं इटली के तानाशाह के खिलाफ तो वे स्वयं एक तोपची के रूप
में शामिल भी हुए। यह क्रांति असफल हो जाने पर उन्हें भागकर फ्रांस जाना पड़ा
मगर जल्द ही वे वापिस इटली आए और विभिन्न संस्थानों में पढ़ाते रहे।
उन्होंने कैनिज़रों
अभिक्रिया’
की खोज
1851 में की थी। इस अभिक्रिया में बेंज़ल्डिहाइड नामक पदार्थ को
अल्कोहलयुक्त क्षार की उपस्थिति में बेंज़ाइल अल्कोहल व बेंज़ोइक अम्ल में
बदला जा सकता है। इस समय वे जीनोआ विश्वविद्यालय में थे। मगर उनका सबसे
महत्वपूर्ण योगदान कुछ और ही था मगर रसायन शास्त्र के विद्यार्थियों को उनके
उस निर्णायक योगदान से शायद ही परिचित कराया जाता है।
कैनिज़रों ने अपने
विद्यार्थियों को रसायन शास्त्र पढ़ाने के लिए एक कोर्स तैयार किया था। उस
समय शिक्षा का तौर-तरीका काफी अलग था। कोई भी वैज्ञानिक जब छात्रों को पढ़ाता
था तो अन्य वैज्ञानिकों के योगदान व मान्य सिध्दांत पढ़ाने के साथ-साथ उन पर
अपनी टिप्पणियां भी जोड़ता था। वह चाहता था कि वे छात्र विषय की तत्कालीन
परिस्थिति को समझें और उस समझ के अनुसार आगे बढ़ें। सिर्फ बने-बनाए सिध्दांतों
पर रुक जाना शिक्षा का काम नहीं था। कैनिज़रो ने जो कोर्स विकसित किया था
उसका नाम था स्केच ऑफ ए कोर्स इन केमिकल फिलॉसफी। यह दरअसल अपने एक मित्र
प्रोफेसर सेबेस्टियानो डी ल्यूका को एक पत्र के रूप में भेजा गया था और आगे
चलकर प्रकाशित भी हुआ था। इस पत्र के शुरू में ही उन्होंने अपना मकसद व
तरीका स्पष्ट कर दिया था- अपने विद्यार्थियों को उस विश्वास तक पहुंचाने के
लिए, जिस तक मैं स्वयं पहुंचा हूं, मैं चाहता हूं कि उन्हें उसी रास्ते पर
खड़ा करूं जिससे होकर मैं यहां तक पहुंचा हूं अर्थात रासायनिक सिध्दांतों की
ऐतिहासिक छानबीन। और यह मंज़िल क्या थी जहां वे पहुंच चुके थे और अपने
विद्यार्थियों को पहुंचाना चाहते थे? यह मंज़िल थी इस बात को पहचानना कि
करीब 50 साल पहले एक अन्य वैज्ञानिक अमीडियो
एवोगैड्रो द्वारा प्रस्तुत परिकल्पना एकदम सही थी और यह रसायन शास्त्र की
मौजूदा अस्त-व्यस्त स्थिति में आगे बढ़ने का एक रास्ता देती है।
तो थोड़ी-सी बात एवोगैड्रो
की हो जाए। एवोगैड्रो ने गैस पदार्थों की रासायनिक अभिक्रियाओं संबंधी
गेलूसैक के प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था (1811) कि यदि
तापमान व दबाव समान हो, तो समस्त गैसों के बराबर आयतन में अणुओं की संख्या
बराबर होती है। जैसा कि ऊपर कहा गया था, उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में परमाणु
व अणु के बीच भेद स्पष्ट न था और एवोगैड्रो भी इसे बहुत स्पष्ट नहीं कर पाए
थे। इसलिए उनके उक्त विचार से ऐसा प्रतीत होता था कि रासायनिक अभिक्रियाओं
के दौरान परमाणु टूटने की बात हो रही है। एवोगैड्रो का यह भी कहना था कि
हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन जैसी तात्विक गैसें भी परमाणु के रूप में नहीं
बल्कि अणुओं के रूप में पाई जाती हैं। यह बात समझ से परे थी कि क्यों एक ही
तत्व के दो परमाणु आपस में जुड़कर अणु बनाएंगे। तो एवोगैड्रो की बात
उपेक्षित ही रही।
कैनिज़रो ने जब 1858 में
इसे पढ़ा तब तक रसायन शास्त्र में काफी प्रगति हो चुकी थी। खास तौर से
कार्बनिक रसायन शास्त्र में काफी काम हुआ था। हजारों कार्बनिक यौगिक बनाए
जा चुके थे। कार्बनिक यौगिकों की एक खास बात यह है कि इनमें वही तत्व कई
अलग-अलग अनुपातों में क्रिया करके अनगिनत यौगिक बना सकते हैं। जैसा कि ऊपर
कहा गया है, परमाणु भारों की गफलत के चलते इन पदार्थों के सूत्र निकालने
में बहुत दिक्कतें आ रही थीं। इस तथ्य ने परमाणु सिध्दांत सम्बंधी डाल्टन
की मान्यता को चुनौती देने का काम किया कि यदि दो तत्व आपस में क्रिया
करेंगे तो 1-1, 1-2, 2-1 वगैरह जैसे सरल अनुपात ही
करेंगे।
इसके अलावा इस दौरान
तत्वों के वर्गीकरण का काम भी काफी आगे बढ़ गया था। खास तौर से रूसी
वैज्ञानिक दिमित्री मेंडेलीव ने तत्वों को परमाणु भारों के आधार पर
क्रमबध्द करके उनमें कुछ पैटर्न खोजने की कोशिश शुरू कर दी थी।
इन सब बातों का परिणाम
था कि रसायनज्ञ परमाणु सिध्दांत, परमाण भार वगैरह को लेकर किसी निर्णय तक
पहुंचने को उतावले थे। इस पृष्ठभूमि में रसायन शास्त्रियों का पहला
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन जर्मनी के कार्लस्रुहे नामक स्थान पर 1860 में
आयोजित किया गया। इसे आयोजित करने में केकुले की प्रमुख भूमिका थी।
कार्लस्रुहे सम्मेलन में
परमाणु भार को लेकर काफी गहमा-गहमी रही। हालत यह थी कि कई रसायनज्ञ तो
परमाणु को तिलांजलि देने की हिमायत कर रहे थे क्योंकि इसकी वजह से काम करना
मुश्किल हो रहा था। इसी सम्मेलन में युवा कैनिज़रो (उस समय उनकी उम्र मात्र
34 वर्ष थी) ने अपना एक पर्चा वितरित किया था। इसमें
एवोगैड्रो के विचारों को प्रस्तुत किया गया था और दर्शाया गया था कि कैसे
इनके आधार पर सारे तत्वों के परमाणु भार और सारे यौगिकों के अणु भार ज्ञात
किए जा सकते हैं और कार्बनिक पदार्थों के सूत्र भी निकाले जा सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि सब लोग
फौरन इस पर्चे में प्रस्तुत विचारों के कायल हो गए थे। मगर यह पर्चा साथ
लेकर जरूर गए थे। धीरे-धीरे सबको लगा कि कैनिज़रो ने समस्या का जो समाधान
पेश किया है, वह तर्क के स्तर पर सटीक है और उसमें दम है। उदाहरण के लिए
जूलियस लोथर मेयर ने कहा था कि कैनिज़रो का पर्चा पढ़कर उनकी आंखों के जाले
साफ हो गए थे। कुछ ही समय में उनकी यह विधि सर्वत्र मान्य हुई और सारे तत्वों
के परमाणु भार और यौगिकों के अणु भार व सूत्र निकाले गए।
गौरतलब है कि यह विधि
स्वीकार होने के बाद, और सर्वमान्य परमाणु भार प्राप्त होने के बाद ही
मेंडेलीव तत्वों को क्रमबध्द करके आवर्त तालिका को अंतिम रूप दे पाए थे।
कैनिज़रो के द्वारा सब पदार्थों के लिए एक-से मानक लागू करने का ही परिणाम
था कि कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थों के बीच का भेद पूरी तरह समाप्त हुआ और
यह स्पष्ट हुआ कि दोनों शाखाओं पर एक से नियम लागू होते हैं।
वास्तव में कैनिज़रो एक
ऐसे वैज्ञानिक है जिनका मौलिक योगदान बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता मगर
अन्य वैज्ञानिकों के तर्कों को बेहतर ढंग से सामने रखकर उन्होंने जो विचार
प्रस्तुत किए उन्होंने विज्ञान को व्यवस्थित करने में निर्णायक योगदान किया
है। आज भी यौगिकों के सूत्र निकालने की लगभग उसी विधि का उपयोग किया जाता
है जो कैनिज़रो ने कार्लस्रुहे में 1860 में प्रस्तुत की थी। कैनिज़रो की
मृत्यु 1910 में हुई।
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